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बंधा मतऊर मेला : न झूले… न ही दुकानें…

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बंधा मतऊर मेला : न झूले… न ही दुकानें… आखिर क्या खासियत है बंधा मतऊर मेले की… जानें सब कुछ…

मेले का नाम सुनकर अक्सर सबके मन में यही ख्याल आता है कि वहां खूब भीड़ होगी, झूले होंगे, दुकानों सजी होगी और तरह-तरह के करतब दिखाने वाले मौजूद होंगे। पर क्या आप जानते हैं छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक मेला ऐसा भी लगता है, जहां ना तो झूले होते हैं न ही दुकानें, ना कोई करतब दिखाने वाला, पर भीड़ खूब होती है। ये मेला है बंधा मतऊर मेला।
जैसा कि आप जानते हैं बस्तर में कई परंपराएं सदियों से चली आ रही है। उनमें से एक ऐतिहासिक बंधा मतऊर मेला की भी परंपरा है। बताया जा रहा है कि 14 साल के बाद कोंडागांव में इस मेले का आयोजन हुआ है। मेला भी ऐसा जहां, तालाब से सामूहिक मछली पकडऩे की परंपरा है। तो इस मेले में करीब 40 गांवों के ढाई हजार से ज्यादा लोगों ने एक साथ मिलकर मछली पकड़ा।

बंधा मतऊर मेला


इस परंपरा में गाजा-बाजा के साथ पूजा अर्चना कर ग्राम प्रमुख मालगुजार को सभी ग्रामीणों ने मिलकर सम्मान के साथ तालाब स्थल में ले गए। मालगुजार रामप्रसाद ने विधिवत पूजा की, फिर सभी लोगों को तालाब में मछली पकडऩे की अनुमति दी गई। लगभग 1 से डेढ़ घंटे तक माता को प्रसन्न करने बाजा बजाया गया। लगभग डेढ़ घंटे तक यह उत्सव चला।


14 साल बाद हुआ आयोजन

यह बंधा मतऊर मेला का आयोजन अंतिम बार 2008 में किया गया था। शासन ने तालाब को लीज में दे दिया था। जिसके चलते 14 सालों तक इस परंपरा का निर्वहन नहीं हो पाया था। इस साल ग्राम बरकई में बैठक कर शीतला माता मंदिर में माता शीतला के आदेश पर फिर इस परंपरा को 14 साल बाद प्रारंभ किया गया। इस तालाब की लीज की राशि बकाया होने के चलते मेंटेनेंस के रूप में इस वर्ष मछली पकड़ने आए ग्रामीणों से प्रति जाल पर 30 से लेकर 50 रुपए सहयोग राशि भी ली गई।

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