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राजिम पुन्नी मेला 5 फरवरी से 18 फरवरी तक…

Rajim punni mela

राजिम पुन्नी मेला विशेष आकर्षण का केंद्र रहता है। इस वर्ष यह मेला 5 फरवरी से 18 फरवरी तक लगेगा। इसे लेकर तैयारियां शुरू हो गई हैं।

वैसे माघी पूर्णिमा के अवसर पर कई स्थानों पर मेला लगता है। 

लेकिन विशेष आकर्षण का केंद्र रहता है। इस वर्ष यह मेला 5 फरवरी से 18 फरवरी तक लगेगा। इसे लेकर तैयारियां शुरू हो गई हैं।

महानदी से लगे राजिम में पुन्नी मेला के अवसर पर कई कार्यक्रम होंगे। पांच फरवरी से 18 फरवरी तक मेला स्थल में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। साथ ही पंचायत एवं ग्रामीण विकास, कृषि, उद्यानिकी, पशु चिकित्सा, स्वास्थ्य, महिला एवं बाल विकास, शिक्षा, श्रम, रोजगार एवं उद्योग विकास केन्द्र द्वारा विभागीय स्टॉल भी लगाए जाएंगे।

महानदी, पैरी नदी और सोंढूर नदी के त्रिवेणी संगम पर स्थित राजिम नगर को श्रद्धालु श्राद्ध तर्पण, पर्व स्नान, दान आदि धार्मिक कार्यों के लिए पवित्र मानते हैं। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में राजिम पुन्नी मेले में स्नान का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है।

राजिम पुन्नी मेला की महत्ता


छत्तीसगढ़ के प्रयागराज के नाम से प्रसिद्ध राजिम का विशेष धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व है।

प्राचीन काल से ही राजिम मेला लोगों की आस्था, श्रद्धा और विश्वास का केन्द्र रहा है। राजधानी रायपुर से मात्र 45 किलोमीटर दूर राजिम में प्रतिवर्ष फरवरी-मार्च में माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक लगभग पन्द्रह दिन ‘माघी पुन्नी मेला लगता है। ऐसी मान्यता है कि हिन्दू धर्म के चार धामों में से एक

जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक पूरी नहीं होती जब तक श्रद्धालु राजिम की यात्रा नहीं कर लेते हैं।


भगवान श्री राजीव लोचन जी का मंदिर भी राजिम की प्रसिद्धी का एक प्रमुख कारण है। पुरातात्विक प्रमाणों के अनुसार यह मंदिर आठवीं-नवमीं शताब्दी का है। यह मंदिर चतुर्भुजी आकार का है जो भगवान विष्णु को समर्पित है। काले पत्थर से बनी चतुर्भुजीय विष्णु की प्रतिमा दर्शनीय है।

इसके अलावा त्रिवेणी संगम स्थल पर कुलेश्वर महादेव का मंदिर विराजमान है। कहा जाता है कि यहां शिव लिंग में सिक्के चढ़ाने पर इसकी प्रतिध्वनि गूंजती है। यहां लोमश ऋषि आश्रम भी है। महर्षि लोमश ने भगवान शिव और विष्णु की एकरूपता स्थापित करते हुए हरिहर की उपासना का महामंत्र दिया था।

लोमश ऋषि के अनुसार बेल पत्र में विष्णु की शक्ति को अंकित कर शिव को अर्पित करना चाहिए। यहां शैव और वैष्णव परम्परा का भी संगम दिखता है। यह धार्मिक सद्भाव का भी उदाहरण है।

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